लॉक डाउन में दिखता संस्कार:स्थायी या अस्थाई

 


जीवन के आपाधापी में जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है वह है सामाजिक मूल्य,सद्भावना, संस्कार, हमारे जीवन को सरल,सफल व सुसंस्कृत बनाने के लिये पीढ़ियों द्वारा पीढ़ियों तक कई संस्कारों को आत्मसात किया गया था, परन्तु पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव,सोशल मीडिया के दुष्प्रचार,एक दूसरे से आगे निकलने की होड़,व वैचारिक अंतर ने भारतीय संस्कारों व परम्पराओं को अस्त व्यस्त कर दिया, लेकिन लॉकडाउन के घोषणा के पश्चात जब पूरा परिवार एक साथ, एक छत के नीचे रहने को मजबूर हुआ तब बहुत सारी अनेक अच्छी बातें हम लोगों के समक्ष आईं, जिसमें संस्कारों में पुनर्जीवन भी है, वैसे संस्कार का मूल अर्थ है'शुद्धिकरण'जिसका मतलब जो धर्मिक कृत्यों के माध्यम से किसी भी व्यक्ति को शरीर,मन और मष्तिष्क को पवित्र करने के अलावा पारलौकिक जीवन को भी शुद्ध बनाते हैं वैसे भारत में 16 संस्कार(शोषण संस्कार)का चलन था जिस कारण से मनुष्य गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यंत तक संस्कारित जीवन व्यतीत करता था,जीवन को शुद्ध बनाने वाले वैदिक संस्कारों में गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण,अन्नप्राशन,चूड़ा कर्म अथवा मुंडन,कर्णबेध,उपनयन,वेदारम्भ,समावर्तन,विवाह,वानप्रस्थ,सन्यास, व अंत्योष्टि प्रचलित था, लेकिन अधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सभी इन संस्कारों से बहुत दूर होते गए,वैदिक काल के समस्त संस्कारों को अधुनिकता ओढ़े इस समाज में आज देखने का प्रयास करना मूर्खता होगी,लेकिन उन्ही संस्कारों में अंतर्निहित व्यवहारिक संस्कार भी जैसे बात करने का तरीका,अभिवादन का तरीका,उठने बैठने का तरीका,बड़ों को सम्मान देने का तरीका मतलब सामान्य जीवन जीने के सामान्य संस्कार भी हम भूल गए हैं , परन्तु इस महामारी के दौरान जब सभी परिवार के सदस्यों को एक साथ उठने बैठने,खाने पीने, खेलने,आपसी विचारों का आदान प्रदान और एक दूसरे को समझने  का अवसर मिला तो कुछ संस्कार परिलक्षित होने लगे, जिसमें बहुत योगदान घर के बड़े बुजुर्गों ने सिखाई, और यह भी कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि टेलिविजन पर दिखाए जा रहे धार्मिक धारावाहिक का भी कुछ हद तक प्रभाव पड़ा,यह एक सांस्कृतिक  परिवर्तन है।



 मेरा मत है कि जब हम समस्त संस्कार खो चुके हैं ऐसे में यदि कुछ ही संस्कार इस समय यदि पुर्नजीवित हो गए तो भी हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा, क्योंकि संस्कार प्राचीन काल से ही मानव जीवन में पथप्रदर्शक का कार्य करता रहा है और वर्त्तमान में भी यह प्रासंगिक है, और यदि इस परिवर्तित युग में परिवार को सुदृढ़,सुसंस्कृत, शुद्ध बनाने में कुछ अस्थाई संस्कार पनपे हैं और उससे जीवन लाभान्वित होता प्रतीत हो रहा है तो हम उन संस्कारों को  स्थायी रूप देकर मानव जीवन सफल व संस्कारित बना सकते हैं।
चरक ऋषि संस्कार के बारे में कहते हैं कि 
'संस्कारों हि गुणानतराधा नमुच्यते'


लेखक
डॉ अरुण कुमार श्रीवास्तव,
प्राचार्य,श्री मुरलीधर भागवत लाल महाविद्यालय, मथौली बाजार,कुशीनगर