मनोदशा के कमजोर पक्षों की मज़बूत स्वीकृति: ख़ुदकुशी


 


आनंद सिंह 'मनभावन'


 


खुदकुशी अथवा आत्महत्या के वर्तमान परिदृश्यों पर नज़र डालने पर ये लगने लगा है कि महत्वाकांक्षाओं की असफलता पर बड़े से बड़ा और ज्ञानवान,विवेकवान भी अपनी मानसिक दृढ़ता खोकर अपनी इहलीला समाप्त करने को उद्दत हो जा रहा है। मानसिक आघातों के अनवरत आवेग में सहायक तथा सहयोगी समझे जाने वाले साथियों की उपेक्षा,और उपहास के झंझावातों से भरोसे की मज़बूत दीवार के बार-बार दरकने से कमज़ोर हो चुका मन जब स्वयं से दूर होने लगता है तब व्यक्ति की मानसिक दशा ऐसी हो जाती है जब उसे स्वयं की जरूरत और अपने होने के अर्थ समाप्तप्राय लगने लगते हैं।
जब ऐसी परिस्थितियां किसी व्यक्ति के जीवन मे आती हैं तब उसे अपना जीवन मूल्यहीन प्रतीत होता है,उसे अपनी क्षमता,और सामर्थ्य पर संदेह होता है तथा वो स्वयं को निरर्थक और बेकार की 'वस्तु' समझने लगता है,जिसकी जरूरत न तो उसके परिवार,रिश्तेदार,समाज को होती है ना ही उसको स्वयं के होने के मायने समझ मे आते हैं।
इसी मनोदशा में लंबे समय तक रहने के बाद जब किसी व्यक्ति को अपने साथियों,घर,परिवार,मित्रों से सहानुभूति और संवेदना नहीं मिलती तब वो आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाता है।जब उसे अपने सबसे करीबियों अथवा अपने सबसे अभिन्न लोगों से उपेक्षा तथा उपहास का पात्र बनना पड़ता है तब वो एक पल उसके लिए कितना असह्य हो जाता है इसका अंदाज़ वो व्यक्ति नहीं लगा सकता जिसने संवेदना जैसी कोमल भावना के अनछुए मगर जादुई एहसासों की गहराई,कोमलता,और मारक क्षमता को महसूस न किया हो।
जगह जगह पर दुकानों की तरह खुलने वाले 'काउंसलिंग सेंटर' सही मायनों में दुकानों की तरह ही व्यवहार भी करते हैं।मन की कोमल भावनाओं को जेब की 'गहराई' और 'घनत्व' से 'वजन' का एहसास कर के 'इलाज' करने की अनुभूति कराने वाली व्यवस्था से मनोदशा की चिकित्सा संभव नहीं।
          इस अवस्था मे पड़े व्यक्ति की व मनोदशा वास्तव में उस मोमबत्ती की तरह होती है जो खुद को जलाकर खत्म कर लेना चाहती है,लेकिन उसे फिर बार बार जलने और पिघलने को मजबूर होना पड़ता है।ऐसी दशा में अंततः उसे अपने वजूद के शून्य होने का एहसास होता है तब खुद को खत्म कर लेने की इच्छा मन मे दृढ़ होती चलती चली जाती है,जिसका परिणाम आत्महत्या होता है।
ज़िन्दगी की मोमबत्ती, खुद को जलाती,रुलाती,पिघलाती दूसरों के अंधेरों को अपनी जलते बदन की आंच से रोशन करती है।
शायद ही किसी ने मोमबत्ती की उस पिघलने,जलते,रोने,और खुद को मिटा देने के पीछे की वजह को 'खुरचने' की कोशिश की होगी।
ये सत्य है खुरचने देने और समेटने में भी एक अजीब सा आनंद है।कभी नाम उकेरने,कभी मिटाने और ज्यादातर बदरंग,भद्दी,और विकृत बनाने की अदम्य घृणित मानसिकता लिए....
खुरचनों का भी एक लंबा इतिहास रहा है।इतिहासों की खुरचनों ने प्रायः 'सभ्यताओं की असभ्यताओं' को उसके सर्वाधिक विकृत स्वरूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।यद्यपि,अगर सही हाथों ने विकृतियों को समेटा तो कभी खूबसूरत इतिहास से भी हमारी सभ्यता रूबरू हुई है।
खैर...हम मोमबत्ती की बात पर वापस लौटते हैं।कभी भी मोमबत्ती की खुरचने समेटने वाले हाथ उसकी जलन और उसके अंदर की आग को महसूस नही करते,वो तो उस खुरचन को वापस फिर  मोमबत्ती बनाकर जलाने और फिर समेटने के अनवरत आनंद की अनुभूति में ही व्यस्त रहते हैं।बिना इसकी जलन,दर्द,व्यथा,को महसूस किए।मोमबत्ती की पिघलन,आंसुओं,और अंदर की अग्नि को समझे बिना.... कि आखिर वो कौन सा कारण है जो वह खुद को जलाकर, पिघलकर,वापस फिर जलकर बार बार उसी पीड़ा को अंगीकार करती है?जब तक कि वो पूरी तरह से भस्मीभूत नहीं हो जाती,अपने अस्तित्व को खुद ही स्वाहा कर देने के प्रारब्ध तक.....
कुछ लोग तो तब भी 'खुरचनों' के लिए ही हाथ मे नुकीली सी कोई चीज़ लिए मनचाहा आकार देने के आनंद को प्रतीक्षित रहते है.....।
शायद खुद को खत्म कर लेने की वो प्रवृत्ति की दृढ़ता इन्ही खुरचनों के नुकीले एहसासों के अनवरत दर्द की चरम परिणति होती है।