कविता

                   रिश्ता


रिश्तों को बनाना ही नहीं,निभाना भी तो पड़ता है,
सम्बन्धों के हर एक मोती को,सजाना भी तो पड़ता है,
भाव हो चाह हो लगाव हो समभाव हो रिश्ते में,
इसीलिए अपनों के आंगन में आना जाना भी पड़ता है,
सम्बन्धों के हर एक मोती को,सजाना भी तो पड़ता है,


पिघलते रहते हैं रिश्ते,बचाने की जरूरत है,
सम्बन्धों की रियासत को,सजाने की जरूरत है,
निकल जाते हैं सब अपने, समझ में कुछ नही आता,
दिलों को जोड़कर उसको,बचाना भी तो पड़ता है,
सम्बन्धों के हर एक मोती को,सजाना भी तो पड़ता है,


कोई होता नही है गैर,सभी अपने हमारे हैं,
कभी जो गौर से देखा, सभी अपने ही प्यारे हैं,
कोई गर द्वेष दिखलाए,तो बस प्रीति बरसाओ,
दिलों की हर सियासत को,निभाना भी तो पड़ता है,
सम्बन्धों के हर एक मोती को,सजाना भी तो पड़ता है,


बिखर जाना तो आसा है, निखर जाना तो मुश्किल है,
बदलते वक्त में शायद,संवर जाना भी मुश्किल है,
जिंदगी सिर्फ रिश्ता है, और है भी क्या इसमें,
इसी को दिल के आंगन में,उगाना भी तो पड़ता है,
सम्बन्धों के हर एक मोती को,सजाना भी तो पड़ता है,


 डॉ अरुण कुमार श्रीवास्तव,
          प्राचार्य,
श्री मुरलीधर भगवतलाल महाविद्यालय, 
मथौली बाजार,जनपद-कुशीनगर